गुरुवार, 26 अगस्त 2010

खुद को चूना लगाते हम लोग!

इस देश में यदि आप वीआईपी नहीं हैं तो आपका कोई काम नहीं होता। आप वीआईपी हैं तो आपके लिए कतार, सिग्नल, इंतजार, क्रमबद्धता, अनुशासन किसी की भी बाध्यता नहीं। आपको हर चीज बगैर बारी आए मिलेगी, कभी-कभी तो दूसरों के जायज हक की। मगर आम आदमी तो इतना अभिशप्त है यहाँ कि कतार में लगकर भी कभी-कभी उसकी बारी नहीं आती। कैसे? देखें एक उदाहरण। एक युवक को तत्काल वाले कोटे में उत्तर भारत के एक शहर से रिजर्वेशन करवाना था। वह तीन दिन तक रोज चार बजे उठकर टिकट खिड़की की लाइन में लगने गया। मगर नंबर नहीं आया। बाद में उसे पता चला कि यहाँ भी कोई एजेंट (?) है, जिसकी कर्मचारियों से मिलीभगत है, जो कुछ 'भेंट-पत्ती' प्राप्त करके 'आउट ऑफ टर्न' लोगों के ‍िटकट करवाता है और टर्न वाले रह जाते हैं। अपने देश के अन हालात पर हम बहुत खीझते हैं। नेताओं आदि के भ्रष्ट आचरण की निंदा भी करते हैं। और क्यों न करें, आज के नेताओं का आचरण निंदा के लायक ही है, स्तुति के लायक कहाँ। पर इन पॉवरफुल लोगों के खिलाफ हम कुछ नहीं कर पाते। 'रंग दे बसंती' स्टाइल में नेताओं को मारकर खत्म करना समस्या का इलाज नहीं है। न ही उसमें बताया यह सुझाव काफी है ‍िक युवाओं को आईएएस आदि बनना चाहिए। ऐसे आईएएस युवा भी काफी देखे, दहेज के लिए जिनकी लाखों की बोली लगती है। अत: जो कुछ हम कर सकते हैं उसकी शुरुआत समाज के स्तर पर ही करना चाहिए क्योंकि आज के भारतीय समाज का दु:खद पहलू तो यह है कि ताकतवर ही आम आदमी के दुश्मन नहीं हैं, आम आदमी ही आम आदमी का दुश्मन है। पैसे लेकर लाइन से परे टिकट देना आम आदमी का आम आदमी के प्रति भ्रष्टाचार है।
चाहे व्यवस्था से तंग आकर हुआ हो लेकिन इस युग में आम आदमी इतना अधिक मतलबी हो गया है ‍िक उसकी अपने मतलब के सिवा किसी से दोस्ती नहीं है। आम लोग एक-दूसरे को ही चूना लगाकर खुश होते हैं। दूसर के टेलीफोन से चुपचाप टेलीफोन कर लेना, दूसरे का माल हड़पकर 'स्मार्ट' होने की पदवी पाना, दूसरे के हिस्से का सामान छल से डकारकर खुश होना, हर छोटे-मोटे काम के लिए मुट्‍ठी गरम करना-करवाना आज हमारे यहाँ आम बात है। सामाजिकताओं में भी 'पहले आप' का लखनवी मिजाज, गरिमा और बड़प्पन लुप्त होता सा लगता है। 'कैसे भी पहले मैं' वाले टुच्चेपन से न किसी को परहेज है न हया। आम आदमी आम आदमी के गुणों का सम्मान नहीं करता मगर गुणरहित दौलत या सत्ताधारियों के आगे आराम से खींसे निपोरता है, हालाँकि ऐसे चमचत्व से उसे मिलता-विलता कुछ नहीं।
पॉवरफुल लोग आम आदमी को कुछ नहीं देते, खुद को फिर-फिर रेवड़ी देते हैं, खुद के ही गले में खुद हार पहनाते हैं, खुद की ही मूर्तियाँ और पोस्टर बनाते हैं, खुद के ही बाल-बच्चों को ठेके और पदवियाँ देते हैं। और आम आदमी रीढ़ बेचकर भी रीढ़ की कीमत नहीं पाता। अत: शुरुआत समाज और परिवार से ही करना होगी। समाज में अच्छे मूल्यों की पुनर्स्थापना कोरा आदर्श नहीं, बल्कि आदर्शवाद तो समय की माँग है, ताकि अन्याय और भ्रष्टाचार रहित शांत और खुशहाल समाज की स्थापना हो सके।

- निर्मला भुराड़िया

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